Wednesday, January 16, 2013

मेरी ख्वाहिशें



कुछ काँटों के बिछौने हैं,
जिनपे नंगे पाँव मेरी ख्वाहिशें चलती हैं.

जब छोटी थी ख्वाहिशें,
और कोमल थी एडियाँ,
बिछौना भी हरा रहता था,
हरे नर्म काँटे जो,
एडियों तले डब जाते,
गुदगुदी लगाते,
और मेरी ख्वाहिशें हसती खेलतीं,
नंगे पाँव इनपे चलती थीं।

वक़्त गुज़रा तो सालों की समझ में,
परत बा परत सख़्त हुई मेरी एडियाँ,
काँटों ने भी मुड़ना छोड़ दिया,
ख्वाहिशें मगर और फैलीं,
सूखे काँटों पे नंगे पाँव दौड़ी,
वो बिछौना भी ज़िद मे बढ़ा जाता है,
एडियों सा ही सख़्त हुआ जाता है।

कुछ साल बाद लगता है,
एक काँटों का बिछौना होगा,
जिसपे खून में लिपटी मेरी ख्वाहिशें खड़ी मिलेंगी।

आज, कुछ काँटों के बिछौने हैं,
जिनपे नंगे पाँव मेरी ख्वाहिशें चलती हैं